ना मेरे सामने ये मंज़र होता ,
तो न मेरे हाथ में ये खंजर होता ,
अगर बूँद बूँद यूँ न लूटता कोई ,
तो तालाब न होता,मैं समंदर होता .....
उखाड़ डालता मैं भी गले दरख्तों को ,
जो मेरे हाथों में सच्चाई का हुनर होता ....
कश्तियाँ मेरी भी औरों की तरह तैरती होती ,
जो उफनता हुआ सागर मेरे अन्दर होता ....
इंसान बनना भी मयस्सर न हुआ यारों ,
कभी सोचा था यूँ ही मैं भी पैयम्बर होता ......
"शैली"
तो न मेरे हाथ में ये खंजर होता ,
अगर बूँद बूँद यूँ न लूटता कोई ,
तो तालाब न होता,मैं समंदर होता .....
उखाड़ डालता मैं भी गले दरख्तों को ,
जो मेरे हाथों में सच्चाई का हुनर होता ....
कश्तियाँ मेरी भी औरों की तरह तैरती होती ,
जो उफनता हुआ सागर मेरे अन्दर होता ....
इंसान बनना भी मयस्सर न हुआ यारों ,
कभी सोचा था यूँ ही मैं भी पैयम्बर होता ......
"शैली"
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteडैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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