पता नहीं कल क्या गाऊंगी ,
शायद भरी भीड़ में यूँ ही ,
परछाईं बन कर खो जाऊंगी ....
नेह भरे नैनों की बातें ,
उगते सूरज , काली रातें ,
तूफानों से घिरे समंदर ,
कब तक शब्दों में बुन पाऊंगी ...
पता नहीं कल क्या गाऊंगी ....
अंतर्मन का घोर अँधेरा ,
ढलती शामें , नया सवेरा ,
फूलों की काटों की बातें ,
जाने कब तक बतलाऊंगी ...
पता नहीं कल क्या गाऊंगी ....
आज नयी बातें मुझ पर हैं ,
तारीफें , आँखें मुझ पर हैं ,
कल को जो चुप बैठी तो मैं ,
शायद खुद से कतराऊँगी ...
पता नहीं कल क्या गाऊंगी .......
मेरे शब्दों में ढल जाते ,
घर बाहर और रिश्ते नाते ,
जाने इन रिश्तों के बंधन ,
कब तक यूँ मैं सह पाऊंगी ....
पता नहीं कल क्या गाऊंगी ......
सूरज अंधियारे से हारे ,
बुझे जा रहे दीपक सारे ,
ऐसे घोर अंधेरों में मैं ,
कैसे , कब तक जग पाऊंगी ....
पता नहीं कल क्या गाऊंगी ....
"शैली"
बहुत अच्छी शुरुआत |
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता |
शुभकामनाएं ,
सादर
बहुत सुंदर .बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.
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